PLFS Report भारत में बेरोजगारी दर 5.6% बताई जा रही है, लेकिन PLFS Report और ILO के आंकड़े कुछ और ही कहानी बयां करते हैं। क्या सरकार ने रोजगार की परिभाषा बदलकर आंकड़ों में हेरफेर किया? जानिए कैसे हफ्ते में 1 घंटे का काम भी नौकरी माना जा रहा है और पढ़े-लिखे नौजवान पकोड़े तलने को मजबूर हैं।
क्या है रोजगार की असली हकीकत? PLFS Report ने उजागर किया चौंकाने वाला सच!
नमस्कार, भारत में रोजगार और बेरोजगारी को लेकर बहस हमेशा गर्म रहती है। हाल ही में जारी PLFS Report (पीरियडिक लेबर फोर्स सर्वे) ने जून 2025 में बेरोजगारी दर 5.6% बताई है। लेकिन क्या यह आंकड़ा हकीकत को दर्शाता है? अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की रिपोर्ट और कई अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यह आंकड़ा जमीनी सच्चाई से कोसों दूर है। आइए, इस मुद्दे को गहराई से समझते हैं।
रोजगार की नई परिभाषा: 1 घंटे का काम = नौकरी?
सरकार ने रोजगार को परिभाषित करने का तरीका ही बदल दिया है। PLFS Report के अनुसार, अगर कोई व्यक्ति हफ्ते में केवल 1 घंटा ऐसा काम करता है, जिससे आय होती है, तो उसे रोजगार प्राप्त माना जाता है। यानी, सड़क किनारे पकोड़े बेचने वाला, रिक्शा चलाने वाला, या फिर एक घंटे ट्यूशन पढ़ाने वाला भी सरकारी आंकड़ों में ‘रोजगार’ की श्रेणी में आता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह वाकई में नौकरी है? क्या बीटेक, एमटेक जैसे उच्च शिक्षित नौजवान इस तरह के काम के लिए पढ़ाई करते हैं?
PLFS Report और ILO का खुलासा
PLFS Report के मुताबिक, भारत में बेरोजगारी दर 2017-18 में 6% थी, जो 2023-24 में घटकर 3.2% हो गई। लेकिन ILO की रिपोर्ट बताती है कि कुल बेरोजगारों में 82.9% नौजवान हैं, और इनमें से 65% पढ़े-लिखे युवा हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि ग्रेजुएट्स में बेरोजगारी अनपढ़ों की तुलना में 9 गुना ज्यादा है। फिर भी, सरकारी आंकड़े रोजगार में वृद्धि का दावा करते हैं। इसका कारण है रोजगार की परिभाषा को ढीला करना, जिसमें असंगठित क्षेत्र के छोटे-मोटे काम, जैसे खेतों में मजदूरी या घरेलू काम, को भी नौकरी माना जा रहा है।
क्या आबादी है बेरोजगारी की वजह?
कई लोग बेरोजगारी का ठीकरा जनसंख्या पर फोड़ते हैं। यह तर्क 1798 में थॉमस माल्थस ने दिया था, जिनका कहना था कि आबादी तेजी से बढ़ती है, जबकि संसाधन धीरे-धीरे। लेकिन कार्ल मार्क्स ने इस थ्योरी को खारिज करते हुए बताया कि पूंजीवादी व्यवस्था में दौलत का जमावड़ा कुछ हाथों में होता है। मुनाफे की होड़ में मशीनों और नई तकनीकों का इस्तेमाल बढ़ता है, जिससे कम मजदूरों से ज्यादा काम लिया जाता है और बाकी लोग बेरोजगार हो जाते हैं। यही ‘सापेक्ष अतिरिक्त आबादी’ बेरोजगारी का असली कारण है, न कि जनसंख्या।
जमीनी हकीकत: खाली पद और बेरोजगार नौजवान
केंद्र सरकार के 9,64,000 पद खाली पड़े हैं। एक चपरासी की नौकरी के लिए लाखों पोस्ट-ग्रेजुएट्स आवेदन करते हैं। बड़े-बड़े संस्थानों जैसे IITs में प्लेसमेंट गिर रहे हैं, और टेक कंपनियां, जैसे TCS, हजारों कर्मचारियों को निकालने की योजना बना रही हैं। मिडिल और लोअर मिडिल क्लास के युवा घरों में बैठे हैं, नौकरी आयोग ठप हैं, और इलाज तक के लिए पैसे नहीं हैं। इसके बावजूद, सरकार दवाइयों पर टैक्स बढ़ा रही है।
एलएफपीआर और सेल्फ-एंप्लॉयमेंट का भ्रम
PLFS Report के अनुसार, भारत का लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट (LFPR) 2017-18 में 49.8% से बढ़कर 2023-24 में 60% हो गया। लेकिन यह बढ़ोतरी स्थायी नौकरियों की नहीं, बल्कि असंगठित क्षेत्र के कामों, जैसे डिलीवरी ब्वॉय, गिग वर्कर्स, या छोटे-मोटे कामों की है। सेल्फ-एंप्लॉयमेंट को भी रोजगार में गिना जा रहा है, लेकिन एक बड़ा बिजनेसमैन और एक छोटा किसान, दोनों को एक ही श्रेणी में रखना कहां का न्याय है?
क्या है समाधान?
कागजों पर आंकड़े सुधारने से बेरोजगारी खत्म नहीं होगी। जरूरत है ऐसी नीतियों की, जो स्थायी और सुरक्षित नौकरियां पैदा करें। शिक्षा और स्किल डेवलपमेंट में निवेश, सरकारी रिक्तियों को भरना, और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना जरूरी है।
PLFS Report और सरकारी आंकड़े भले ही रोजगार में वृद्धि का दावा करें, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है। जब तक रोजगार का मतलब केवल पेट पालना रहेगा, तब तक पढ़े-लिखे नौजवानों का भविष्य अंधेरे में रहेगा। क्या सरकार इस सच्चाई को स्वीकार करेगी, या फिर आंकड़ों की बाजीगरी से जनता को गुमराह करती रहेगी? आप क्या सोचते हैं? अपनी राय कमेंट में जरूर बताएं।

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